संत श्री राजाराम जी

श्री राजऋषि योगीराज ब्रह्राचारी ब्रह्रालीन चमत्कारी संत अवतारी पुरुष पुजनीय संत श्री श्री 1008 श्री राजारामजी महाराज


 का जन्म विक्रम संवत 1939 चैत्र सुदी नवमी को मोतीबार्इ की पवित्र कोख में हुआ । जिस समय दिव्य शिशु ने इस संसार में पदार्पण किया , उस समय कमरा अलौकिकप्रकाश से भर गया था और घंटा व शंख ध्वनि से वातावरण भकितमय हो गया था । प्रभु ने इस तरह संकेत दिया था कि जिस शिशु ने मोतीबार्इ की कोख से जन्म लिया है वह कोर्इ साधारण शिशु नही है- वह असाधारण बालक साक्षात परमात्मा का अंश है । माता की गोद में लेटे नवजात शिशु के चेहरे पर तेज , आंखो में अनोखी चमक और होठो पर मुस्कुराहट थी । नवजात के चेहरे में ऐसा आकर्षण था कि उस पर से निगाहें हटाने की इच्छा ही नही होती थी ।बार-बार उसे देखने का मन करता था । इस अलौकिक पुत्र को पाकर हरिंग जी और मोतीबार्इ के मन में अपार तृपित का भाव जागृत हुआ था जैसे उन्हे सब कुछ मिल गया हो । जैसे परमात्मा ने उनकी हर इच्छा पूरी कर दी हो । माता मोतीबार्इ अपने लाडले राजा बेटे पर ममता की बरसात करती रहतीं । जैसी कि परम्परा रही है-जब कोर्इ शिशु संसार में आता है तो उसके माता-पिता , उसके परिजन बच्चे के भविष्य के बारे में जानने के लिए किसी विद्वान ज्योतिषी के पास जाते है । हरिंग जी ने भी गांव के ज्योतिषी से सम्पर्क किया । ज्योतिषी ने शिशु के जन्म का समय , ग्रह , नक्षत्र आदि का अध्यन करने के बाद कहा- बालक का जन्म स्वाति नक्षत्र और मेश राशि के अति शुभ मुहुर्त में हुआ है । भगवान स्वयं बाल रूप धर कर आये है । यह बच्चा चमत्कारी होगा । भक्तों का हितकारी और संतो को उबारने वाला होगा । यह समाज को नर्इ दिशा देगा । भटके हुए प्राणियो को रास्ता दिखएगा और वंश का नाम रोशन करेगा । ज्योतिशी ने जब एक बार पुन: कहा-हरिंग जी ! यूं समझो कि इस बालक के रूप में साक्षात भगवान आपके घर -आंगन में पधारे हैं ।


बचपन के चमत्कार:- समय के साथ साथ बालक राजाराम ने पहले घुटनो चलना सीखा और फिर अपने छोटे छोटे पांवो से घर आंगन में दौड़ने फिरने लगे । एक दिन उनकी माता ने उन्हे पुआ खाने को दिया । पुआ लेकर आंगन मे आ बैठे । तभी एक कौआ उड़ता हुआ आया और बालक राजाराम के पास आ बैठा । राजाराम ने पुआ उसकी ओर बढाया जैसे ही कौआ चोच खोलकर आगे बढ़ा उन्होने अपना हाथ पीछे कर लिया । फिर तो वह राजाराम के लिए एक नया खेल बन गया । वह पुआ कौए की तरफ बढ़ाते और जब कौआ पुआ लेने के आगे बढ़ता तो हाथ पीछे कर लेते । बालक की यह लीला मां मातीबार्इ देख देखकर मुग्ध हो रही थी । उन्होने कौए को उड़ा दिया और बेटे को गोद में प्यार करने लगी । राजारामजी अपने बड़े भार्इ रधुनाथ जी के साथ खेलते थे । खेलते खेलते व बचपन मे भगवान की भकित करते हुए बालपन गुजर गया । अल्पायु मे माता-पिता के परलोक गमन को वे सहज ही स्वीकार कर नही पाये । माता-पिता के स्नेह से वंचित होने पर राजाराम बहुत रोये थे , उनके आंसू थे कि थमने का नाम नही लेते थे । माता पिता के सवर्गारोहण के उपरान्त रघुनाथ जी ने साधूवेश धारण कर घर त्यागा तो राजाराम जी ने भार्इ के विछोह को सहज स्वीकार कर लिया । ऐसे विकट समय मे उनके मामा ने सहारा दिया । मामा खूमाराम उन्हे अपने घर धाधिया गांव ले गये । सत्य तो यह है कि राजाराम जी अपने मामा के साथ धांधिया गांव गये तो जरूर थे लेकिन उनका मन हमेशा शिकारपुरा में ही रहा । शिकारपुरा की मिटटी, खेत , बावड़ी तालाब , पेड़ , पौधे सभी उन्हे अपनी ओर खींचते रहते थे ।

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