संत श्री दयारामजी
श्री राजऋषि योगीराज ब्रह्राचारी पूज्य वर्तमान गाद्धिपति संत श्री श्री 1008 श्री दयाराम जी महाराज दिनांक १ जुलाई १९७९ को आश्रम आ गए| उस समय महंत श्री देवाराम जी महाराज भक्ति में लीन थे एवं श्री किशनाराम जी महाराज समाज सेवा में व्यस्थ थे| श्री दयाराम जी के पिताजी श्री अणदाराम जी भूरिया द्वारा महंत श्री देवाराम को दिए गए वचन को पूरा करने के उद्धेस्य से ही श्री दयाराम जी को साधुत्व स्वीकार करना पड़ा |
संत मरमात्मा के प्रतिनिधि , संदेशवाहक और ध्वजवाहक होते है । यदि सच्चे संत को भगवान का साक्षात स्वरूप कहा जाए तो अतिश्योकित नहीं होगी । सच्चा संत वह होता है जो अपना उध्दार कर चुका है और दूसरे का उध्दार करने के अतिरिक्त जिसके जीवन में दूसरी कोर्इ इच्छा नहीं है । जिसमें स्वार्थ की गंध नहीं है । जिसको परोपकार के अलावा कुछ और आता नहीं है । वही सच्चा संत सच्चा गुरू होता है । संत आध्यातिमक जगत के दीपस्तम्भ होते है और आम जन उनसे अलौकिक प्रकाश प्राप्त कर अपने जीवन का मार्ग सफल बनाते है । संत - पूज्य भाव बढ़ाने वाला , कर्ण सुखद , न्यायानुकूल , सत्य , हितकर , अर्थगर्भित , मानरहित , विवादरहित और निर्दोष वचन आलता है । संत - व्यसन से विमुख , शोक - ताप को शांत करने वाला और चित को प्रसन्न करने वाला होता है । भारतवर्ष भगवान के विभिन्न अवतारों , साधु - संतो , तपस्वियों, महात्माओ का देश रहा है । ऋषि-मुनियों ने सदियो के कठोर जप-तप ध्यान-अध्ययन द्वारा ऐसी सनातन संस्कृति हमें विरासत में दी है , जो समय के हर थपेड़े को सहते हुए भी अजर - अमर है । इन मनीषियो ने वेद , पुराण , उपनिषद , गीता , रामायण आदि के रूप में ज्ञान का अथाह भंडार हमें उपलब्ध कराया है । भारत संतो की भूमि है और संतो के अखंड प्रताप से ही हमारा देश धर्मगुरू , जगदगुरू जैसी उपाधियों से विभूषित भी हुआ है ।
संत मरमात्मा के प्रतिनिधि , संदेशवाहक और ध्वजवाहक होते है । यदि सच्चे संत को भगवान का साक्षात स्वरूप कहा जाए तो अतिश्योकित नहीं होगी । सच्चा संत वह होता है जो अपना उध्दार कर चुका है और दूसरे का उध्दार करने के अतिरिक्त जिसके जीवन में दूसरी कोर्इ इच्छा नहीं है । जिसमें स्वार्थ की गंध नहीं है । जिसको परोपकार के अलावा कुछ और आता नहीं है । वही सच्चा संत सच्चा गुरू होता है । संत आध्यातिमक जगत के दीपस्तम्भ होते है और आम जन उनसे अलौकिक प्रकाश प्राप्त कर अपने जीवन का मार्ग सफल बनाते है । संत - पूज्य भाव बढ़ाने वाला , कर्ण सुखद , न्यायानुकूल , सत्य , हितकर , अर्थगर्भित , मानरहित , विवादरहित और निर्दोष वचन आलता है । संत - व्यसन से विमुख , शोक - ताप को शांत करने वाला और चित को प्रसन्न करने वाला होता है । भारतवर्ष भगवान के विभिन्न अवतारों , साधु - संतो , तपस्वियों, महात्माओ का देश रहा है । ऋषि-मुनियों ने सदियो के कठोर जप-तप ध्यान-अध्ययन द्वारा ऐसी सनातन संस्कृति हमें विरासत में दी है , जो समय के हर थपेड़े को सहते हुए भी अजर - अमर है । इन मनीषियो ने वेद , पुराण , उपनिषद , गीता , रामायण आदि के रूप में ज्ञान का अथाह भंडार हमें उपलब्ध कराया है । भारत संतो की भूमि है और संतो के अखंड प्रताप से ही हमारा देश धर्मगुरू , जगदगुरू जैसी उपाधियों से विभूषित भी हुआ है ।
शिकारपुरा आगमन एवं शिक्षा दीक्षा
श्री दयाराम जी महाराज दिनांक १ जुलाई १९७९ को आश्रम आ गए | उस समय महंत श्री देवाराम जी महाराज भक्ति में लीन थे एवं श्री किशनाराम जी महाराज समाज सेवा में व्यस्थ थे | महंत संत श्री दयाराम जी महाराज के पिताश्री अणदाराम जी भूरिया द्वारा महंत श्री देवाराम को दिए गए वचन को पूरा करने के उद्धेश्य से ही श्री दयाराम जी को साधुत्व स्वीकार करना पड़ा |
आपका जिन जिन विशेष कार्यों में योगदान रहा वे मुख्य बातें निम्न है :
1. किशनारामजी महाराज समाधी मंदिर का निर्माण कार्य ।2. आश्रम परिसर में सी. सी. सड़क निर्माण कार्य ।3. मुख्य पोल द्वार के बाहर सोंद्रियकरण व दुकानो का निर्माण ।4. हरिद्वार धर्मशाला का निर्माण व भव्य उदाहरण ।5. राजाराम गुरूकुल -पालनपुर में स्कूल भवन का निर्माण एवं हार्इटेक सांर्इस का शुभारम्भ ।6. आश्रम परिसर में समस्त काटे की बाड़ को हटाकर लोटा फेमिंग जाली लगार्इ व परिसर का खण्ड़ो में विभाजन ।7. परिसर में अलग से मेला ग्राउण्ड का निर्माण ।8. सत्संग भवन 155210 आधुनिक टीन सेड का निर्माण ।9. आश्रम परिसर में कृष्ण भोजनशाला के पास मेला भोजन प्रसाधी हेतु विशाल व भव्य टीन सेड का निर्माण जो कि 190270 |
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